Friday, June 26, 2020

हिंदू - गर्व या ग्लानि का शब्द

हमें स्वयं को हिंदू कहने या कहलाने पर गर्व होना चाहिए या ग्लानि का?
वैसे तो ये प्रश्न थोड़ा बेतुका होना चाहिए। लेकिन आज एक ऐसा वर्ग है जो कहता है कि ये शब्द विदेशियों का दिया हुआ है, इसलिए हमें इसपर गर्व नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर स्वामी विवेकानंद जैसे विश्व विख्यात व्यक्ति ने कहा है कि गर्व से कहो हम हिंदू हैं। तो हमें किसपर विश्वास करना चाहिए? आइए इसे समझ के देखते हैं।
मान्यता ये है कि सिंधु नदी के पूर्व या सिंधु नदी के पार रहने वालों को विदेशियों के द्वारा, हिंदू या हिंदुस्तानी कहा जाता था। कुछ विदेशी भाषाओं में "स" शब्द का उच्चारण नहीं है इसलिए वो "सिंधु" को "हिंदू" कहने लगे। उदाहरण के रूप से फ़ारसी लोग "सप्ताह" को "हफ़्ता" कहते आए हैं।
इसका अर्थ ये हुआ कि हिंदू शब्द एक स्थान विशेष पर रहनेवालों के लिए उपयोग में था। इसका किसी विचारधारा या सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं था। और ये ठीक भी है। क्योंकि जितनी प्राचीन सभ्यताएँ हैं, उन्हें भौगोलिक आधार पर ही जाना जाता है जैसे, मिस्र की सभ्यता, रोम की सभ्यता या यूनानी सभ्यता।
इसमें हमारे समझने की बात ये है कि मज़हब के नाम पर पहचान बनाने की परम्परा पहले नहीं होती थी। इसका आरम्भ यहूदियों ने किया था। ये पहला ऐसा मज़हब है जिसका "गॉड" मानवजाति में भेदभाव करता है। लेकिन यहूदी कभी भी अन्यों को यहूदी बनाने के लिए लालायित नहीं थे। ये काम बीते दो सहस्र (हज़ार का उपयोग बंद करना चाहता हूँ) वर्षों में ईसाईयत और इस्लाम ने किया है। इन मज़हबों का जो "गॉड" या "अल्लाह" है वो अपने अनुयायियों और अन्यों में भेदभाव करता है।
ऐसी संकुचित मानसिकता विश्व के लिए नई थी। ये मज़हब जहां-जहां गए, वहाँ की मूल संस्कृतियों और पूजा-पद्दतियों को नष्ट कर दिया। जब इस्लामी आक्रांता भारतवर्ष में पहुँचे तो उनके लिए यहाँ के सभी वासी ग़ैर-मुसलमान थे, इसलिए घृणा के पात्र थे। द्वैतवादी, अद्वैतवादी, बौद्ध, जैन और बाद में सिक्ख, सभी काफिर/मशरिक़ थे। उनके लिए सब "हिंदू" थे। तब से ये हिंदू शब्द का "लेबल" हमें दे दिया गया है। बीते सात दशकों की क्षुद्र राजनीति ने बौद्धों, जैनियों और सिक्खों को हिंदू से पृथक कर दिया। 
इसका अर्थ ये है कि हमारा अपना लेबल इस लिए नहीं है क्योंकि हमारे पूर्वज इतनी संकुचित मानसिकता के नहीं थे कि पूजा करने के आधार पार पहचान बनाते या भेदभाव करते। इसपर हमें गर्व हैं।
भेदभाव तो हर समाज में होता है और होना भी चाहिए। हमारे पूर्वज जो भेदभाव करते थे वो था कर्मों और व्यवहार के आधार पार।  इसलिए एक रावण वेदों का ज्ञाता होते हुए भी नीच है और अपने सद्गुणों और बुद्धि के कारण विदुर हो या रविदास, वो महान हैं।
हिंदू कहने या कहलाने में कोई हानि नहीं है। परंतु हमारे पास एक बेहतर विकल्प भी है। हिंदू शब्द हमारे ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता। जो लोग शुद्ध और सच्चा आचरण करते हैं उन्हें आर्ष ग्रंथों में आर्य कहा जाता है। और नीच व्यवहार करनेवाले को अनार्य। 
एक उदाहरण रामायण से ही मिल जाता है। जब कैकेयी राम के लिए वनवास माँगती है तो उस समय उसके इस व्यवहार के लिए महर्षि वाल्मीकि उसे भी अनार्या कहकर सम्बोधित करते हैं (वाल्मीकि रामायण २।१९।१९)। 
ये उदाहरण इसलिए देना आवश्यक है क्योंकि आज ऐसे कुतर्क करनेवालों की कमी नहीं है जो "आर्य" शब्द को किसी जाति विशेष से जोड़ने का दुष्प्रचार कर रहे हैं।
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने हमारे समाज की इस स्थिति पर एक कविता लिखी है जो यहाँ उचित बैठती है -

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी

आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां

फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां

संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है


यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं

विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं

संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े

पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े


वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे

वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे

वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा

परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा


संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी

निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी

फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में

जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में


वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे

सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे

मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे

विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे


आज बाज़ारू मीडिया के प्रभाव में आकार जो हमने ईमानदार शब्द को अपना लिया है वो इसी अधोगति का परिणाम है।ईमान का अर्थ होता है इस्लाम और ईमानदार का शाब्दिक अर्थ है मुसलमान। आशा है कि हम अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग करते हुए अपने कथानक को अपने अधिकार में लेना आरम्भ कर देंगे। 

Tuesday, April 28, 2020

किसने तोड़े हिन्दू मंदिर? (भाग 2)|| Who destroyed Hindu temples? (Part 2)|| Exposing Faizan Mustafa

मैंने भाग 1 में फ़ैज़ान मुस्तफ़ा के एक विडिओ के बारे में बताया था कि किस प्रकार वो एक ऐसा भ्रमजाल फ़ैला रहा है कि हमारे देश में बौद्ध मत को समाप्त करने में सनातन धर्मियों की भूमिका है न कि मुसलामानों की। इस प्रकार वो आज के हिन्दुओं में एक ग्लानि भाव भरने का प्रयास कर रहा है। हम जानते हैं कि आज के हिन्दू या मुसलमान तो इतिहास में पीछे जाकर कुछ परिवर्तन नहीं ला सकते लेकिन इनका ऐसे वीडियो बनाने का एक उद्देश्य होता है इस्लाम को एक साफ़-सुथरा मज़हब सिद्ध करना। ये जताना कि इस्लाम में कोई बुराई नहीं है, ये तो सनातन धर्म की और हिन्दुस्तान की परम्पराएं ऐसी रही हैं कि यहाँ मत और सोच के आधार पर या मज़हब के आधार  प्रताड़ित किया जाता रहा है। और जैसे जैसे आगे कृष्ण जन्म-भूमि का विषय उठेगा वैसे-वैसे ये लोग और प्रखर होते जाएंगे। ये बीते कई दशकों से यही काम कर रहे हैं। 

अपने इस वीडियो में फ़ैज़ान मुस्तफ़ा जी ने ये जताने का प्रयास किया है कि मिहिरकुल नाम का एक शिव भक्त था  जिसने बहुत से बौद्ध विहारों और स्तूपों को तोड़ा था बौद्ध मतावलम्बियों का नरसंहार भी किया था। 
इस वीडियो को देखते हुए जी पहले तथ्य पर ध्यान जाता है वो ये है कि जिस पृष्ठ को वो दिखा रहा है उसमें कहीं भी मिहिरकुल के शिव भक्त होने का उल्लेख नहीं है, ये शब्द मुस्तफ़ा जी ने अपनी ओर से जोड़ दिए हैं। 
ये छद्म इतिहासकारों की एक बहुत पुरानी चाल है। वर्षों पहले, रोमिला थापर ने भी ऐसा ही कुछ किया था। उसे मार्क्सवादी इतिहास लेखकों की माँ माना जाता है। इस का एकदम सटीक उत्तर एक बहुत ही प्रखर इतिहासकार सीताराम गोयल जी ने दिया था। उन्होंने अपनी पुस्तक "हिन्दू टेम्पल्स: व्हाट हप्पेनेड टू देम (पार्ट 2)" में मिहिरकुल वाले इस आक्षेप का तथ्यात्मक उत्तर दिया था। उन्होंने इस पुस्तक में बताया कि उन्होंने रोमिला थापर को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने ये आग्रह किया था कि इस प्रकार के सभी प्रकरणों की एक सूची उन्हें प्रदान की जाए जिसमें हिन्दुओं ने किसी और के पूजा स्थलों का विनाश किया हो। उस समय रोमिला थापर ने ठीक यही आक्षेप लगाया था जो फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने अपने वीडियो में लगाया है। 
आइए इस आक्षेप का आकलन करते हैं:-
सर्वप्रथम तो वो लिखती हैं कि चीनी यात्री ह्यूण त्सांग ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि मिहिरकुल ने सैंकड़ों बौद्ध भवनों को ध्वस्त किया था लेकिन संभव है कि आप इसे अतिश्योक्ति और स्वयं एक बौद्ध होने के कारण उसका दुराग्रह मान लें किन्तु हमारे देश में एक और इतिहास की पुस्तक है राजतरंगिणी जिसे एक ब्राह्मण लेखन कल्हण ने लिखा है। संस्कृत में लिखी ये पुस्तक काश्मीर में लिखी गयी थी। वो भी उल्लेख करता है कि मिहिरकुल जोकि एक हूण था, उसने 1600 से अधिक बौद्ध भवनों को ध्वस्त किया था और सहस्रों बौद्धों का नरसंहार किया था। 

सीताराम गोयल 

सीताराम गोयल जी ने इसके प्रत्युत्तर में बताया कि रोमिला थापर जानबूझकर ये तथ्य छिपा गई कि पहले मिहिरकुल ने बौद्ध विहार में ये निवेदन किया था कि वो बौद्ध मत के विषय में सीखना चाहता है तो बुद्धों ने जानबूझकर किसी शिक्षक को भेजने के स्थान पर एक भृत्य को इस काम के लिए भेज दिया था। मिहिरकुल इससे आग बबूला हो उठा और उसने बुद्धों को प्रताड़ित करना आरम्भ कर दिया। यही तथ्य फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने भी नहीं बताया। 
दुसरे, उसने शैवमत की दीक्षा ली हो, इसकी संभावना बहुत कम है। उसने कुछ शिव मंदिर बनने दिए थे ये तथ्य है लेकिन वो शैव मत को सीख रहा था या कितना समझ पाया था, इसमें संदेह है। उसके सिक्कों पर एक ऐसी आकृति देखने को मिलती है जो शिवजी से मिलती-जुलती है। लेकिन वो शिव मत के अनुसार चल रहा था, इसमें संदेह है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि शिव पुराण में या शैव मत की किसी पुस्तक में ये उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि दूसरों के पूजा स्थलों को तोड़ना चाहिए। 

यहाँ मुल्ला-मार्क्सवादी-मिशनरी गुट के लोग ये चाल चलते हैं कि सीताराम गोयल जी तो हिन्दू विचारधारा के पक्षधर थे इसलिए उनपर विशवास क्यों किया जाए। यही बात हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी उपिंदर सिंह भी अपनी पुस्तक में देती हैं जोकि दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग की अध्यक्षा रही हैं और किसी भी सूरत में हिंदूवादी नहीं हैं। वो अपनी पुस्तक "पोलिटिकल वायलेंस इन अन्सिएंट इंडिया" के पृष्ठ 241 पर इसी घटना का उल्लेख करती हैं।
  
अब बात करते हैं राजतरंगिणी की। 
श्लोक 289 में कल्हण ने जहां मिहिरकुल का उल्लेख किया है, वो उसे म्लेच्छ कह रहा है न कि शैव। वो मिहिरकुल को कोई सम्मान नहीं दे रहा क्योंकि उसका चरित्र और व्यवहार ही ऐसा था। साथ ही वो उसे कालोपमो नृप कह रहा है; अर्थात ऐसा राजा जो काल के समान था। 
रोमिला थापर ने एक और बात कही थी कि मिहिरकुल ने गांधार में ब्राह्मणों को अग्रहार के लिए भूमि अनुदान में दी थी। इससे वो ये छवि बनाना चाहती है की मिहिरकुल एक हिन्दू, सनातन धर्मी या शैव था। अब देखिए कल्हण इस विषय में क्या कहता है। 


वो इन ब्राह्मणों के लिए द्विजाधम शब्द का उपयोग कर रहा है अर्थात ये अधम श्रेणी के द्विज अथवा ब्राह्मण थे जो मिहिरकुल से अनुदान ले रहे थे। इससे ये स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश की या सनातन धर्म में कभी भी पूजा स्थलों को तोड़ने वालों को सम्मान नहीं दिया गया बल्कि उन्हें अधम ही मन गया है। 
पर षड़यंत्रकारी लोग अर्धसत्यों के सहारे लेकर हमारे मन में ग्लानि भाव भरने का प्रयास करते हैं। आप सभी से निवेदन है सावधान रहें और अपनी सनातन संस्कृति पर गर्व कीजिये। 

नमस्ते!

Saturday, April 25, 2020

किसने तोड़े हिन्दू मंदिर? (भाग 1)|| Who destroyed Hindu temples? (Part 1)|| Exposing Faizan Mustafa

आज हम बात करनेवाले हैं एक व्यक्ति की जिनका नाम है फ़ैज़ान मुस्तफ़ा। ये हैदराबाद स्थित जो NALSAR यूनिवर्सिटी है उसके कुलपति या वाइस चांसलर हैं। आजकल आप इनको वो जितने टुकड़े टुकड़े गैंग  वाले टीवी चैनल्स हैं उनपर भी कभी कभी डिबेट्स में देख सकते हैं। कभी रविश कुमार के साथ या कभी करण थापर के साथ। क्योंकि एक जैसे हैं तो इन चैनल्स पर ज़रूर दिखाई देते हैं ये। इनका अपना भी यूट्यूब चैनल है जिसपर इनका कहना है की ये क़ानून के बारे में उस चैनल के माध्यम से जानकारी देते हैं। जिन दिनों हमारे देश में वो जो राम मंदिर वाला मुद्दा है सर्वोच्च न्यायलय में जब उसकी प्रतिदिन सुनवाई चल रही थी, तो उन दिनों ये सज्जन भी प्रति दिन उसपर विडिओ डाला करते थे और अकेले इसी मुद्दे पर इन्होने लगभग 10 - 15 विडिओ डाले हैं। उद्देश्य वही था जो ये मुल्ला-मार्क्सवादी -मिशनरी गिरोह है उनका जो उद्देश्य होता है कि हमारे देश के लोगों को बरगलाना, वही इनके विडिओ का भी उद्देश्य था। हमारे देश के लोगों को ये जताना कि मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा है, इस्लाम तो एक शांति का मज़हब है, इसने कभी भी मंदिरों में तोड़-फोड़ नहीं की। और इस देश की जो सनातन धर्म की मूल परम्पराएं हैं, वही घटिया हैं और उन्हीं के कारण ऐसी तोड़-फोड़ की घटनाएँ होती रही हैं।
आज हम जिस विडिओ की समीक्षा करेंगे उसमें इसने बताया है कि किस कारण से हमारे देश में जो मंदिर थे वो तोड़े जा रहे थे। टेम्पल डिस्ट्रक्शन के बारे में ये पूरे का पूरा विडिओ है इनका। अब ये लगभग सत्रह मिनट का विडिओ है लेकिन उसमें बीस से ज़्यादा गलतियां या झूठ मैंने देखे हैं तो इसलिए मैं एक विडिओ में वो सारा कुछ नहीं बता पाऊंगए। मुझे ऐसा लग रहा है की मुझे इसी के लिए एक सीरीज़ बनानी पड़ेगी।
तो आज हम शुरू करते हैं उसके पहले भाग से।



हमारे देश में बौद्ध मत जो है वो बहुत काम है, जो बौद्ध हैं वो बहुत कम रह गए हैं तो ये कमी आने का कारण क्या है, उसकी आज हम समीक्षा करने वाले हैं लेकिन फ़ैज़ान मुस्तफा ने इसके जो कारण दिए हैं, उन कारणों को जानने से पहले हम अपने देश के एक महापुरुष के विचार जान लेते हैं इसी विषय पर। इनका नाम था डॉक्टर भीमराव रामजी अम्बेदकर, जिन्हें हम बाबा साहेब के नाम से जानते हैं। बाबा साहेब ने इस्लाम पर, बौद्ध मत पर बहुत गहन अध्ययन किया था तो उनके विचार देखते हैं कि उन्होंने क्या कहा है (पुस्तक डाउनलोड करें) :-
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हिन्दुस्तान में बौद्ध मत का अन्त मुसलमान आक्रान्ताओं के कारण हुआ हैइस्लाम बुतों के शत्रु के रूप में आया थासब जानते हैं कि बुत एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ मूर्ति हैइस शब्द का अविर्भाव ही दर्शाता है कि मुसलमानों के अनुसार गौतम बुद्ध का संप्रदाय, मूर्तिपूजा का  पर्यायवाची हैमुसलमानों के लिए मूर्तिपूजाऔर बुत परस्ति  दोनों एक ही थेयही कारण था कि मूर्तियों को तोड़ने का जो उनका उद्देश्य था, वो बौद्ध मत के विनाश का कारण बना
तो यहाँ बाबा साहेब ये बता रहे हैं कि आपने सुना होगा कि मूर्ति को बुत कहा जाता है। वास्तविकता ये है की उन्होंने जब मध्य पूर्व से निकलना शुरू किया, अरेबिआ से निकले तो उस समय तक चारों ओर, जो बौद्ध मत है, उसका बहुत अधिक प्रभाव था। तो जो बुद्ध की प्रतिमाएं थीं उन्हें तोडना शुरू किया और बुद्ध से बुत शब्द बन गया और आज इस बुत शब्द को मूर्तिपूजा का पर्यायवाची माना जाता है। आगे देखिए बाबा साहेब ने क्या कहा है :-
इस्लाम ने बौद्धों का विनाश केवल भारत में ही नहीं किया। बल्कि जहाँ-जहाँ भी इस्लाम गया उसने यही किया। इस्लाम के आरम्भ से पूर्व, बौद्ध मत बैक्ट्रिआ, पार्थिआ, अफ्गानिस्तान, गान्धार, चीनी तुर्किस्तान के अतिरिक्त, सम्पूर्ण एशिआ में व्याप्त था।

मुसलमान घुसपैठियों ने बौद्ध विश्वविद्यालयों को लूटकर उनका विनाश कर दिया। इनमें नालन्दा, विक्रमशिला, जगद्दला और उदान्तपुरी कुछ उदाहरण हैं। हमारे देश में जितने बौद्ध विहार थे उन्हें मिट्टी में मिला दिया।
सहस्रों की सन्ख्या में बौद्ध भिक्षुओं को भारत से भागकर नेपाल और तिब्बत में शरण लेनी पड़ी। भिक्षुओं की एक बहुत बड़ी संख्या को मुसलमान आक्रान्ताओं ने मौत के घाट उतार दिया। मुसलमानों की तलवार ने किस प्रकार बौद्ध भिक्षुओं का सर्वनाश किया इसे स्वयं मुसलमान इतिहासकारों ने ही लिखा है।

अब ये जिन लेखकों की बात कर रहे हैं, हम उनमें से केवल एक का उदाहरण लेते हैं। तेरहवीं सदी में एक इतिहासकार हुए हैं इस्लाम के, जिनका नाम था मौलान मिन्हाजुद्दीन सिराज। इनकी एक पुस्तक है जिसका नाम है तबकात-इ-नासिरी। उसमें से मैं एक उदाहरण ले रहा हूँ। वो इसमें एक मोहम्मद बख्तियारुद्दीन इख्तियार खिलजी नाम के आक्रांता के बारे में बताता है। 

उसकी सेना में दो भाई थे निज़ामुद्दीन और शम्सुद्दीन। मैं सन् १२४३ में शम्सुद्दीन से लखनौती में मिला था। तब उसने मुझे जिस घटना का उल्लेख किया था उसे मैं बता रहा हूं। बख्तियार खिल्जी दो सौ सैनिकों के साथ एक दुर्ग के द्वार पर पहुंच गया और दुश्मनों को सम्भलने का मौका दिए बिना उन पर हमला कर दिया। ये दोनों भाई भी उसके साथ थे। इन्होने जल्दी ही दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया और इनके हाथों बहुत सा माल-ए-ग़नीमत लगा। वहाँ के अधिकतम् निवासी मुंडे हुए सिरों वाले ब्राह्मण थे। उन सभी को हमने मार दिया। वहाँ बहुत सी पुस्तकें थीं। जब मुसलमानों ने उन्हें देखा तो तो उन्होंने उनके विषय में जानने की कोशिश की। लेकिन सभी पुरुष मार दिए गए थे इसलिए कोई नहीं बता पाया कि उन पुस्तकों  में क्या लिखा है। हमें बाद में पता चला कि ये जिसे हम दुर्ग समझ रहे थे वो एक विश्वविद्यालय (मदरसा) था। हिन्दी भाषा में इसे विहार अथवा महाविद्यालय कहते हैं।

तो यहाँ वो एकदम स्पष्ट करके बताता है कि ये जो मोहम्मद बख्तियारुद्दीन इख्तियार खिलजी था, इसने विश्वविद्यालय को तहस-नहस कर दिया था और वहाँ जितने बौद्ध भिक्षु थे, उन्हें मार दिया गया था। और यही बात बाबा साहेब भीमराव रामजी अम्बेदकर ने बताई है। 
अब सुनते हैं फ़ैज़ान मुस्तफ़ा को कि वो इस विषय में क्या कहता है। इसने अपने इस वीडिओ में एक बहुत ही ड्रामैटिक कहानी सुनाई हैइसका कहना है कि एक बार जब ये चीन गया तो वहाँ एक टैक्सी चालक ने इससे एक प्रश्न कियासुनिए क्या कहना है इसका:-

उसका सवाल ये था कि इण्डिया में इतने काम बुद्धिस्ट क्यों हैं ? आपको मालुम है की ऑलमोस्ट एक दर्जन के करीब बुद्धिस्ट मैजोरिटी कंट्री हैं दुनिया में। जापान है, विएतनाम है, चीन है, थाईलैंड है, श्रीलंका है, म्यांमार है। और जहाँ बुद्धा का पूरा जीवन - यापन हुआ वहाँ आप देखिए की वो कितने कम हैं। मेरा सर शर्म से झुक गया क्योंकि फैक्ट ये है कि हमने बुद्धिस्ट को पर्सिक्यूट किया। हमने बुद्धिस्ट के टेम्पल्स को मोनस्ट्रीज को स्तूपास को डिस्ट्रॉय किया।  

हम्म..... 
हमने!
इस हमने में कौन कौन आता है, उसपे हम बादमें आएंगे लेकिन पहले ये जो पर्सिक्युट शब्द है, इसे समझ लेते हैं। ये शब्द अंग्रेजी भाषा का है जिसका अर्थ होता है - किसी को उसके मज़हब के आधार पर प्रताड़ित करना। वैसे आजकल इसमें नस्ल शब्द भी जोड़ दिया गया है लेकिन मूलरूप से ये जो शब्द था , ये उस समय उपयोग किया जाता था जब किसीको उसके मज़हब के आधार पर प्रताड़ित किया जाता था। विशेषरूप से, जब ईसाइयत का उदय हुआ तो उन्होंने वहाँ पर यहूदियों को पर्सिक्युट करना शुरू किया था। और क्योंकि इस्लाम भी लगभग वैसा ही मज़हब है इसमें पर्सिक्युट का जो पर्यायवाची शब्द है, वो है फ़ितना। जब आप किसीको मज़हब के कारण तंग करते हैं या प्रताड़ित करते हैं तो उसे फ़ितना कहा जाता है। हमारे देश में क्योंकि न तो इस प्रकार का कभी व्यवहार होता था और न ही ऐसी कोई मूल अवधारणा है, इसलिए इसका कोई शब्द आपको हिंदी या संस्कृत में नहीं मिलेगा तो हम इसे केवल प्रताड़ना मानकर ही चलेंगे। जब मैंने पहली बार फ़ैज़ान मुस्तफ़ा का ये विडिओ देखा तो बातें मुझे तुरंत खटकी। पहली ये कि ये जो लोग अपने को ज़्यादा पढ़ा लिखाबताते हैं, वो गौतम बुद्ध को बुद्धा कहना शुरू कर देते हैं। अँगरेज़ बुद्धा बोलते हैं, वो समझ में आता है, लेकिन हमारे ही देश के ये जो भूरी चमड़ी वाले लोग हैं, ये भी बुद्धा कहना शुरू कर देते हैं। दूसरा मुझे ये लगा जब इसने ये कहा कि मुझे शर्म आई तो मुझे लगा कि चलो कोई तो कम से कम ऐसा है जो मुसलमान घर में पैदा हुआ है लेकिन उसे इस बात की शर्म आई कि उन्होंने हमारे देश में बुद्धिज़्म का,बौद्ध मत का विनाश कर दिया। लेकिन जब थोड़ा सा आगे चले तब इसने अपना असली रंग दिखाया। इसका कहना ये है कि जो यहाँ पर बौद्ध मत का विनाश हुआ है, वो मुसलामानों ने नहीं किया, उससे पहले यहाँ पर जो हिन्दू थे, उन्होंने ये विनाश किया था। ये जो इसने कहा था कि हमने पर्सिक्युट किया, उस "हमने" में ये मुसलमानों की बात नहीं कर रहा। ये यहाँ पर हिन्दुओं की बात कर रहा है की जो यहाँ के मूल निवासी थे, जो सनातन धर्म था, उसने पर्सिक्युट किया है। ये भी देखिए ज़रा :-

अब एक और चीनी यात्री आते हैं, हियूंन सॉन्ग। जो इंडिया में आए 631 - 645 में। हर्षवर्धन का शासन हैं। वो क्या लिखता है, "वो लिखता है की छठी सदी का हूण शासक मिहिरकुल ने, जो एक शैव था, १६०० बौद्ध विहारों को तोड़ा और सहस्रों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई। ये था जिसके कारण चीन में मेरा सिर शर्म से झुका था। 

तो इन सज्जन का कहना है कि मिहिरकुल जो कि एक शिव भक्त था, उसने सहस्रों बुद्धों के मंदिर तोड़े, उनके स्तूप तोड़े और सहस्रों बुद्ध अनुयायियों का नरसंहार किया। इसके विषय में हम अगले भाग में चर्चा करेंगे। 

नमस्ते!

यदि अच्छा लगा है तो भाग 2 भी देखें। 

Wednesday, October 1, 2014

Mahatma Gandhi on Madan Lal Dhingra

The name Mahatma Gandhi generally evokes either reverence or rejection, depending on the mindset or bend of mind of the person. 
Is it possible for us to consider him a human being who had his own positive and negative traits?
 On this birth anniversary of his, here is a small portion of his activities, which will help us understand the person better.

The date was July 23, 1909. Madan Lal Dhingra was facing trial at Old Bailey, England for killing a Briton called Curzon Wyllie. The 26 year old patriot Dhingra's statement in his defence included:
I maintain that if it is patriotic in an Englishman to fight against the Germans if they were to occupy this country, it is much more justifiable and patriotic in my case to fight against the English. I hold the English people responsible for the murder of 80 millions of Indian people in the last fifty years, and they are also responsible for taking away ₤100, 000, 000 every year from India to this country. I also hold them responsible for the hanging and deportation of my patriotic countrymen, who did just the same as the English people here are advising their countrymen to do. And the Englishman who goes out to India and gets, say, ₤100 a month, that simply means that he passes a sentence of death on a thousand of my poor countrymen, because these thousand people could easily live on this ₤100, which the Englishman spends mostly on his frivolities and pleasures. Just as the Germans have no right to occupy this country, so the English people have no right to occupy India, and it is perfectly justifiable on our part to kill the Englishman who is polluting our sacred land. I am surprised at the terrible hypocrisy, the farce, and the mockery of the English people. They pose as the champions of oppressed humanity—the peoples of the Congo and the people of Russia—when there is terrible oppression and horrible atrocities committed in India; for example, the killing of two millions of people every year and the outraging of our women. In case this country is occupied by Germans, and the Englishman, not bearing to see the Germans walking with the insolence of conquerors in the streets of London, goes and kills one or two Germans, and that Englishman is held as a patriot by the people of this country, then certainly I am prepared to work for the emancipation of my Motherland.
For those interested in the details of the trial, here are the details.

At this time (1909), Gandhi was still in South Africa and was almost a non entity compared to the stature of Sri Aurobindo Ghosh, Vinayak Damodar Savarkar and Bal Gangadhar Tilak. All these three were votaries of armed resistance, a line on which Chapekar brothers, Madan Lal Dhingra, acted and which was to be later followed by Bhagat Singh, Udham Singh, Netaji Subhash Bose and many other brave patriots.
Gandhi was smartly positioning himself in the eyes of Britishers as someone who could give a different direction to the freedom movement. Here is what Gandhi wrote about Madan Lal Dhingra in 'Indian Opinion':-
It is being said in defence of Sir Curzon Wyllie's assassination that it is the British who are responsible for India' ruin, and that, just as the British would kill every German if Germany invaded Britain, so too it is the right of any Indian to kill any Englishman. Every Indian should reflect thoughtfully on this murder. It has done India much harm: the deputation's efforts have also received a setback. But that need not be taken into consideration. It is the ultimate result that we must think of. Mr. Dhingra's defence is inadmissible. In my view, he has acted like a coward. All the same, one can only pity the man. He was egged on to do this act by ill digested reading of worthless writings. His defence of himself, too, appears to have been learnt by rote. It is those who incited him to this that deserve to be punished. In my view, Mr. Dhingra himself is innocent. The murder was committed in a state of intoxication. It is not merely wine or bhang that makes one drunk; a mad idea also can do so.
Indian Opinion, 14/08/1909, pp 428 vol. 9, Collected Works of MG

In views of Gandhi, a man in the prime of his youth, who knows that he will be put to death, performs a wonderful deed for his motherland and is fearless in the face of death is a coward. A coward. Today we know that these are the words of a man who said that partition of India will be over his dead body as he will sit for a fast unto death to oppose the partition. We know what this 'brave' man did.
Secondly, he is trying to portray Dhingra as someone who is so immature that he can not distinguish between worthy and 'worthless writings'. Thirdly, Dhingra was so low on IQ that he had to learn his defence by 'rote'. 
Don't these words reek of the arrogance of a person who thinks himself as the greatest intellectual?
We don't know if he was the greatest intellectual or not but what is sure is that he was a very smart politician. Just look at his choice of words - 'worthless writings' and 'those who incited him to this that deserve to be punished'.
He is referring to the writings of Savarkar, Tilak and Aurobindo Ghosh. 
His words would have sounded as music to the ears of the Britishers. Combine it with the sugar coated letters that he used to write to British Officers, one can understand that he was positioning himself in the eyes of Britons as a better replacement of the current leaders.

Monday, November 25, 2013

Rhinoplasty and “Pizza effect”

Most of the readers are unaware that just a few decades ago, Pizza was looked down upon as a food item in Italy, the native place of Pizza. Italian immigrants to America packaged it as a delicacy of Italian cuisine, first to Americans, and then exported it to Italy. Ironically, it is considered as an up market food item in the same very Italy today. This gave rise to the term 'Pizza effect'. The term 'Pizza effect' was coined by late Swami Agehanand Bhaarti. Born as Leopold Fisher in a Christian family, he worked a professor at Syracuse university for thirty years. Gifted with a sharp and analytical mind, he fell in love with the vibrant nature of Hinduism. This term is used to denote the process by which cultural exports are transformed and reimported to their culture of origin, or the way in which a community's self-understanding is influenced by (or imposed by, or imported from) foreign sources.
Let us learn another term; Rhinoplasty. It is the name given to the surgical procedure of reshaping, changing or attaching nose to a patient.
What is the relation between these two terms, belonging to different fields, one to sociology and the other to medical science?
Well, Everything.
Most of our countrymen have been forced to believe that the modern medical science is a gift of Europeans and/or Americans, including plastic surgery. But the facts are just the opposite.
The following is an excerpt from the diary of a British doctor,one Dr. H.Scott, dated 1st January, 1794.
In a conversation that I had some time ago with Captain Irvine of this presidency who had come to Bombay on some business from Poona where he is stationed, my curiosity was much raised by the account he gave me of a practice that is not uncommon among the Gentoos (Hindus) of putting new noses on people who have had them out cut. He told me that he first came to the knowledge of this from a sepoy who had his nose cut off by Tippoo during the last War (Tipu Sultan was utterly barbaric to all non muslims). In consequence of it he had become an invalid in the Company's pay which he received every month from Captain Irvine. One day he came to Captain Irvine and begged his permission to go for a certain time to some distance that he might get a new nose, for he said that his wife could not bring herself to like him in his present situation. Captain Irvine thought at first that he wished to impose on him, but the man assured him that he was speaking only the truth and that he would shew him one of his friends who some time before had received a new nose. He accordingly brought him and Captain Irvine had reason to believe the story for he saw a nose which altho' not actually so perfect as if it had been formed by nature was yet sufficiently agreeable to the eye. Captain Irvine learned at the same time from Mr. Findlay the Company's surgeon with the Resident that the sepoy had some time before been with him to beg to have a new nose put on but Mr. Findlay had assured him that such a practice was not known among the Europeans. Captain Irvine gave the sepoy leave of absence and in some weeks afterwards he came back to Poonah with a pretty good nose. It was somewhat too roundand uniform but such as would not be taken notice of for being disagreeable. All the gentlemen in the Company's service at Poona were witnesses of this change. When Captain Irvine came to Bombay which was soon after the operation, the sepoy still wore plugs, I believe of cotton, in his new nose. There was a discharge from some slight ulceration within it, nor had the part acquired entirely the natural heat of the body. It appeared otherwise to be well joined and healthy and the man had acquired great security in his late acquisition.
This conclusively proves that the science of Plastic surgery was not known to the European world till the eighteenth century. On the other hand, it was a practice from 'times immemorial' for Hindus.

Further Dr. H.Scott writes:

As I wished much to be further acquainted with this curious subject I wrote to my friend Mr Findlay concerning it and I cannot do better than send you a copy of his own words in answer.
"On the second instant I was favoured with your last letter wherein you express a strong desire of having some facts collected respecting the custom in this country of putting noses on those who have lost them. It affords me pleasure to inform you that we have ascertained in the most satisfactory manner that individuals or rather families of a certain cast of people in Hindostan have from time immemorial been acquainted with and practise the art of putting on noses, and I have ample grounds to believe that the operation is in general successful. I have at this moment before me two Mahrattas pensioners of the Bombay Government, whom I saw on their arrival here from Syringaputtam in may or june 1792 without noses. These two men have now their faces decorated with noses of a natural size and tolerable shape which are firmly united and receive nourishment from the stumps of their original noses. These two facts which have fallen under the observation of all the gentlemen of this Residency as well as my own afford sufficient testimony on this subject; but the following proof may be deemed still more satisfactory.
"Through Sir Charles Mallet's obliging influence Mr Cruso and I were permitted to see the operation performed on the 26 ultimo by a man of the Koomar cast ( a class of Hindoos chiefly employed in making the common earthenware of this country) who, with an old razor borrowed on the occasion, dissected with much composure a portion of the frontal integuments from the pericranium of the patient and grafted it, a new operation to us in surgery, on the stump of the original nose. He there retained it, by a cement without the aid of stitches sticking plaster, or bandages. The patient is at present in good health and high spirits. An adhesion has taken place seemingly in every part; when it is perfected and cuatrized I shall give you a particular history of the operation and subsequent treatment". (Poona 12 December 1793.)
The above is all the information that I have yet procured concerning the restoration of noses. It must be understood only of the soft and not the bony part of the nose; so much of it I suppose as a knife can readily remove; for this has been a common punishment with the despots by whom this country has been ruled. The cement, by which the old and new parts are kept together till they unite, appears to be a desideratum in our surgery. I cannot discover wherefore the skin is not taken from a more ignoble and a less conspicuous part than the forehead. I should suppose that a piece of skin would but ill supply the place of the septum and the other cautilages of the nose, its muscles, membrane & c ; but so far as appearance is concerned, and this must be acknowledged to be a consideration of great moment, it makes an excellent substitute.
Altho' this operation of the Gentoos is supported by the analogy of some well known facts there are people I doubt not who will call in question the truth of this relation. I beg leave to repeat that two of the Company's surgeons Mr Findlay and Mr Cruso both men of eminence in their profession have actually seen the operation performed and the sepoys who are mentioned above are known to all the gentlemen of the Residency at Poona. You are very welcome Sir to make use of my name in any way you may chuse to mention this singular operation for I am perfectly assured of the unquestionable honour as well as of the good sense of those from whom I have received the accounts.
H.Scott
Bombay, Jany 1, 1794.

If any further proof for this age old tradition of advanced surgery of our forefathers, one can read it from the comments of another eminent Briton. He was J. C. CARPVE, F.R.S. Member of Royal College of Surgeons, London. In 1816, he wrote:
This art is practised by the Koomars, a caste of Hindoos. Some religious ceremonies are first performed. Betel and arrack are put into the patient's hands, and he is then laid on his back, his arms stretched along his sides, on the ground, and he is ordered, on no pretence whatever, to use his arms during the operation; and they impress him with this idea, that it cannot be successful unless he complies strictly with this injunction."
On undertaking the first of the two cases to be hereafter narrated, I was induced to make such personal inquiries as were within my reach in this country, concerning the Indian method, I did myself the honour to write to Sir Charles Mallet, who had resided many years in India, and who obligingly confirmed to me the report, that this had been a common operation in India, from time immemorial; adding, that it had always been performed by the caste of potters or brickmakers, and, that though not invariably, it was usually successful. Mr. James Stuart Hall, a gentleman who was many years in India, assured me, that he had seen the operation performed, and that it was of tedious length. From Dr. Barry, of the India service, I learned, that he also had seen the operation; that it occupied an hour and a half, and was performed with an old razor, the edge of which, being continually blunted in dissection was every moment re-set. Tow was introduced to support the nose, but no attempt to form nostrils, by adding a septum, was made. I am obligingly informed by Major Heitland, of the India service, that in India, several years ago, in the time of Hyder Ali, Mr. Lucas, an English surgeon, was, in several instances, successful in the operation, which he copied from the Hindoo practitioners.
Is it not surprising that since the times of the great sages Charak and Sushrut, the 'shalya chikitsa' was preserved by our ancestors for more then two thousand years?
And here we are, just about two centuries later, admiring the Europeans and Americans as the custodians of the sciences.
This is a classic case of Pizza effect. Hope we get rid of it soon.

Sunday, November 24, 2013

Direct Experience Vs. Blind faith


Any belief which is not consistent with reason and logic should be discarded at the earliest. Any inference which can not be verified directly at some level of consciousness by experimenting or experience is useless. This is a basic proposition of Sanatan Dharm. This is also the basic proposition of science. The claims by a scientist should be verifiable and repeatable.
Let us understand it this way. All of us have different levels of consciousness. If a statement or teaching of Bhagwad Geeta, Upnishads or Veds does not stand to the test of direct experience when the experimenter has attained the required level of consciousness, then the teaching is superfluous and useless.
Directly opposite to this proposition are the monotheistic creeds. None of them allows its proponents to follow the path of logic and reasoning. They offer a circular argument as proof. The existence of God is to be believed because their prophet is saying (or has said) so and prophet is to be believed because God is saying so (which only prophet can hear).
To understand and appreciate this difference between Sanatan Dharm and prophetic creeds, we will take examples from the texts of the two traditions.
In the present times, the advertising industry has used the principle laid down in Bhagwad Geeta to their advantage. To what extent is the advertising industry using this principle ethically is not the point of debate here.

The verses 62 – 63 of second chapter says:

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
If one keeps on thinking about an object, he/she develops an attraction for it.
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
This attraction leads to a desire of possessing the object. This desire leads to anger/frustration, if not immediately gratified.
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
Once possessed by anger, it leads to obsession. Obsession results in a loss in the sense of right and wrong
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
Which leads to destruction of intellect. Loss of intellect opens the doors for disaster.

This sequence of thoughts and actions can be observed in any shopping mall or automobile showroom. Since the advertising agencies are not concerned with the last two lines of the shlok, we can ignore that part for our experimental verification of the claims. The results are there for us to see.

Belief in Krishn

Did Lord Krishn exist? If yes, was he an avtaar of Brahm? Was he an extra ordinary human being, and a good motivator?
Whether the answers to these questions is Yes or No is immaterial for the sustenance of Hinduism. The emphasis is not on the person but on the message. No one is going to issue a fatwa or will imprison you for blasphemy even if you outrightly reject Krishn as a fiction. No one is going to ex communicate you or call you a Kaafir. Everyone has a right to have his/her opinion.

Belief in Jesus

Now let us turn to the claims of prophetic creeds. Islam and Christianity, both believe in prophets mentioned in Bible. The Christians claim that Jesus was the 'son of God', not only that, he has been the only son of God. As a result he was a unique person and no other human being can achieve that status. The Muslims are ready to accept Jesus as one of the many prophets but do not grant him the exalted status of 'son of God' which Christians expect. The same is mentioned in their book Quran, supposed to be dictated by Islamic god called Allah to their godman Muhammad.
Let us look at the stand of Muslims regarding Jesus: (Quran: Chapter 19, Verses 88 to 93)
They say: "(Allah) Most Gracious has begotten a son!"Indeed ye have put forth a thing most monstrous! At it the skies are ready to burst, the earth to split asunder, and the mountains to fall down in utter ruin, That they should invoke a son for (Allah) Most Gracious. For it is not consonant with the majesty of (Allah) Most Gracious that He should beget a son. Not one of the beings in the heavens and the earth but must come to (Allah) Most Gracious as a servant.
So, according to islamic doctrine, the Christian stand is monstrous. It is not a logic but a mere statement which has to be accepted as it is because Quran says so.
This brings Christianity in direct conflict with Islam because if the church accepts or even tolerates this, whole of the creed crumbles. It loses its self proclaimed sole franchise of God.
Fortunately for the world, the west has undergone a period of rationalism in the last two and a half centuries, which helped it to see through the dogmatic stands of church. The rationalism helped Europeans and Americans outgrow Christianity. Moreover, with advances in historical research and its allied fields like anthropology and archeology, it has been established that there is no proof of Christ being a historical character. Going by the dead sea scrolls, the person called Jesus was almost the direct opposite of what he is portrayed to be by the church.
The concept of 'only son of God' is so alien to the pluralistic Hindu world view that average Hindus fail to understand its significance for the survival of Christian creed. It was Gandhi who was able to articulate the Hindu stance regarding this assertion.
I regard Jesus as a great teacher of humanity, but I do not regard him as the only begotten son of God. That epithet in its material interpretation is quite unacceptable. Metaphorically we are all sons of God, but for each of us there may be different sons of God in a special sense. Thus for me Chaitanya may be the only begotten son of God. God cannot be the exclusive Father and I cannot ascribe exclusive divinity to Jesus. 
 Harijan: June 3, 1937
Here it is pertinent to mention that this comment was based on taking the stand of church at its face value.

Belief in Muhammad

Contrary to a very big question mark on the very existence of Jesus Christ, the historicity of Muhammad is not questioned. Therefore, for the present discussion, we assume that Muhammad was a historical person.
According to Islamic doctrine, the creator of universe is to be addressed as Allah or his other names approved by islamic theology. Calling him by any other name is an unpardonable crime in Islam. Ipso facto, he can not be called Raam, Krishn, Shiv, Durga or Jesus. This Allah has been sending prophets from time to time who act as medium of transmission of message of Allah to humans. Thus, the creator talks to his created beings through proxy and not directly. The last prophet in this list was Muhammad. The message given by Allah to humanity, via Muhammad, is claimed to be recorded in Quran. It is the complete message from which nothing can be removed and to which nothing can be added.
Existence of Allah has to be accepted as Muhammad said so and the status of Muhammad as the final prophet has to be believed because Quran says so.
Since Muhammad had borrowed generously from Bible, therefore Jesus is mentioned in Quran but since Bible predates Muhammad, it is silent on the status of any final prophet. But it has very clear instructions regarding for the question 'how are future prophets to be treated?'
In fact, according to Bible, anyone claiming to be a prophet for other Gods is to be killed. anyone who worships any other God except the Biblical God called Jehova/Yahweh/God/Elohim should be killed. (Bible, Deuteronomy 13, verses 1 – 5)
If a prophet, or one who foretells by dreams, appears among you and announces to you a sign or wonder, and if the sign or wonder spoken of takes place, and the prophet says, “Let us follow other gods” (gods you have not known) “and let us worship them,” you must not listen to the words of that prophet or dreamer. The Lord your God is testing you to find out whether you love him with all your heart and with all your soul. It is the Lord your God you must follow, and him you must revere. Keep his commands and obey him; serve him and hold fast to him. That prophet or dreamer must be put to death for inciting rebellion against the Lord your God, who brought you out of Egypt and redeemed you from the land of slavery. That prophet or dreamer tried to turn you from the way the Lord your God commanded you to follow. You must purge the evil from among you.
As a result, Muslims are worshipping 'other God', a category deserving the same treatment as their prophet. (Bible, Deuteronomy 13, verses 6 – 10)
If your very own brother, or your son or daughter, or the wife you love, or your closest friend secretly entices you, saying, “Let us go and worship other gods” (gods that neither you nor your ancestors have known, gods of the peoples around you, whether near or far, from one end of the land to the other), do not yield to them or listen to them. Show them no pity. Do not spare them or shield them. You must certainly put them to death. Your hand must be the first in putting them to death, and then the hands of all the people. Stone them to death, because they tried to turn you away from the Lord your God, who brought you out of Egypt, out of the land of slavery.
Naturally, Christians completely reject Muhammad as a final prophet. They consider him an imposter or a false prophet. It has resulted in the worst blood baths on the planet between the two prophetic creeds for more than a thousand years. The Crusades were a response to the Islamic Jihad. In the post colonial world, a school of thought has changed its line of attack. They have started sending feelers with an aim to convert Muslims to Christianity. In this tussle of market share, they say that we are willing to accept Muhammad as a prophet if you are willing to accept Jesus as 'only son of God'. This trade off is harmful to the Islamic cause as it reduces Muhammad to one of the prophets and not the final prophet, thereby reducing his status of being the final prophet whose word is supposed to overwrite that of all others, including Jesus.
Readers will have to use their discretion to chose between Direct Experience and Blind Faith.

Tuesday, November 27, 2012

Syed Khan was a 'reformer': NCERT


The page no. 120 of NCERT for class 8, titled OUR PASTS - III (Part 2) is titled Organising for reform.

The sixth paragraph is titled The Aligarh Movement

It states that (NCERT link) :

The Mohammedan Anglo - Oriental College, founded by Sayyid Ahmed Khan in 1875 at Aligarh, later became the Aligarh Muslim University. The institution offered modern education, including Western science, to Muslims. The Aligarh Movement, as it is known, had an enormous impact in the area of educational reform.

Alongside, a picture of Sayyid Ahmed Khan has been shown. On the same page a picture of Swami Vivekanand has also been show. The typical balancing act. Placing a monster with a monk will be sufficient to fool 12 year old children into thinking that Sayyid Ahmed Khan was some great human being.

The contrast between Swami Vivekanand and Sayyid Ahmed Khan could not have been more. One opposed Britishers and Christianity tooth and nail where as Ahmed Khan was not only the pet poodle of Britishers but also wanted Christianity to stay in our motherland to defeat Hinduism.

Let us take a closer look.

Just after the 1857 uprising, this 'reformer' had written a book, the title of which will give the readers an idea of his mindset. It is called 'The loyal Mohammedans of India'. If you are wondering as to the subject of loyality of Mohammedans of India, as mentioned by Sayyid Khan, then here is an extract from one of his letters

extract from 'The life and work of Syed Ahmed Khan'
by G.F.I. Graham

He was a lick spittle of Britishers, from the beginning to the end.

During the unrest of 1857, when some freedom fighters were trying to liberate our motherland from the clutches of Britishers, This NCERT reformer was playing his part to perfection. So faithful was he to the Britishers that he was given suitable rewards. 

Take a look.



That is how NCERT is subverting the thought process of the nation.