Friday, June 26, 2020

हिंदू - गर्व या ग्लानि का शब्द

हमें स्वयं को हिंदू कहने या कहलाने पर गर्व होना चाहिए या ग्लानि का?
वैसे तो ये प्रश्न थोड़ा बेतुका होना चाहिए। लेकिन आज एक ऐसा वर्ग है जो कहता है कि ये शब्द विदेशियों का दिया हुआ है, इसलिए हमें इसपर गर्व नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर स्वामी विवेकानंद जैसे विश्व विख्यात व्यक्ति ने कहा है कि गर्व से कहो हम हिंदू हैं। तो हमें किसपर विश्वास करना चाहिए? आइए इसे समझ के देखते हैं।
मान्यता ये है कि सिंधु नदी के पूर्व या सिंधु नदी के पार रहने वालों को विदेशियों के द्वारा, हिंदू या हिंदुस्तानी कहा जाता था। कुछ विदेशी भाषाओं में "स" शब्द का उच्चारण नहीं है इसलिए वो "सिंधु" को "हिंदू" कहने लगे। उदाहरण के रूप से फ़ारसी लोग "सप्ताह" को "हफ़्ता" कहते आए हैं।
इसका अर्थ ये हुआ कि हिंदू शब्द एक स्थान विशेष पर रहनेवालों के लिए उपयोग में था। इसका किसी विचारधारा या सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं था। और ये ठीक भी है। क्योंकि जितनी प्राचीन सभ्यताएँ हैं, उन्हें भौगोलिक आधार पर ही जाना जाता है जैसे, मिस्र की सभ्यता, रोम की सभ्यता या यूनानी सभ्यता।
इसमें हमारे समझने की बात ये है कि मज़हब के नाम पर पहचान बनाने की परम्परा पहले नहीं होती थी। इसका आरम्भ यहूदियों ने किया था। ये पहला ऐसा मज़हब है जिसका "गॉड" मानवजाति में भेदभाव करता है। लेकिन यहूदी कभी भी अन्यों को यहूदी बनाने के लिए लालायित नहीं थे। ये काम बीते दो सहस्र (हज़ार का उपयोग बंद करना चाहता हूँ) वर्षों में ईसाईयत और इस्लाम ने किया है। इन मज़हबों का जो "गॉड" या "अल्लाह" है वो अपने अनुयायियों और अन्यों में भेदभाव करता है।
ऐसी संकुचित मानसिकता विश्व के लिए नई थी। ये मज़हब जहां-जहां गए, वहाँ की मूल संस्कृतियों और पूजा-पद्दतियों को नष्ट कर दिया। जब इस्लामी आक्रांता भारतवर्ष में पहुँचे तो उनके लिए यहाँ के सभी वासी ग़ैर-मुसलमान थे, इसलिए घृणा के पात्र थे। द्वैतवादी, अद्वैतवादी, बौद्ध, जैन और बाद में सिक्ख, सभी काफिर/मशरिक़ थे। उनके लिए सब "हिंदू" थे। तब से ये हिंदू शब्द का "लेबल" हमें दे दिया गया है। बीते सात दशकों की क्षुद्र राजनीति ने बौद्धों, जैनियों और सिक्खों को हिंदू से पृथक कर दिया। 
इसका अर्थ ये है कि हमारा अपना लेबल इस लिए नहीं है क्योंकि हमारे पूर्वज इतनी संकुचित मानसिकता के नहीं थे कि पूजा करने के आधार पार पहचान बनाते या भेदभाव करते। इसपर हमें गर्व हैं।
भेदभाव तो हर समाज में होता है और होना भी चाहिए। हमारे पूर्वज जो भेदभाव करते थे वो था कर्मों और व्यवहार के आधार पार।  इसलिए एक रावण वेदों का ज्ञाता होते हुए भी नीच है और अपने सद्गुणों और बुद्धि के कारण विदुर हो या रविदास, वो महान हैं।
हिंदू कहने या कहलाने में कोई हानि नहीं है। परंतु हमारे पास एक बेहतर विकल्प भी है। हिंदू शब्द हमारे ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता। जो लोग शुद्ध और सच्चा आचरण करते हैं उन्हें आर्ष ग्रंथों में आर्य कहा जाता है। और नीच व्यवहार करनेवाले को अनार्य। 
एक उदाहरण रामायण से ही मिल जाता है। जब कैकेयी राम के लिए वनवास माँगती है तो उस समय उसके इस व्यवहार के लिए महर्षि वाल्मीकि उसे भी अनार्या कहकर सम्बोधित करते हैं (वाल्मीकि रामायण २।१९।१९)। 
ये उदाहरण इसलिए देना आवश्यक है क्योंकि आज ऐसे कुतर्क करनेवालों की कमी नहीं है जो "आर्य" शब्द को किसी जाति विशेष से जोड़ने का दुष्प्रचार कर रहे हैं।
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने हमारे समाज की इस स्थिति पर एक कविता लिखी है जो यहाँ उचित बैठती है -

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी

आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां

फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां

संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है


यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं

विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं

संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े

पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े


वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे

वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे

वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा

परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा


संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी

निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी

फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में

जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में


वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे

सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे

मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे

विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे


आज बाज़ारू मीडिया के प्रभाव में आकार जो हमने ईमानदार शब्द को अपना लिया है वो इसी अधोगति का परिणाम है।ईमान का अर्थ होता है इस्लाम और ईमानदार का शाब्दिक अर्थ है मुसलमान। आशा है कि हम अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग करते हुए अपने कथानक को अपने अधिकार में लेना आरम्भ कर देंगे।